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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवम श्री चंद्रमभजिन स्तवनं. तुमें भोगपणे पोतानो भोग भोगवो छो, निजशक्ति जे अनंतगुणपर्याय रूप, परमचैतन्यरूप, परमानंदरूप, सहजसुखरूप, एवी जे अनंती तत्त्वविलासता तेने भोग्यपणे गणो छो, स्वधर्मनेज भोग्य जाणो छो, माटे हे सुविधि परमेश्वर ! तमें परमात्मतारूप परम धर्मना भोगी छो जी ॥२॥ इति द्वितीय गाथार्थः ॥ दानादिकनिज भाव, हताजे परवशाहोलालह०॥ ते निजसन्मुख भाव, ग्रहो लही तुज दशा हो लालाग्र० प्रभुनो अद्भुत योग, सरूपतणी रसा हो लालस०॥ भासे वासे तास, जास गुण तुज जिसा हो लाल ॥ जा० ॥३॥ अर्थः-दानादिक आत्मधर्म जे क्षयोपशमी छे, ते सर्व परानुयायी छे, पुद्गलानुयायी छे, ते अनादिना परवश थई रह्या छे, ते सर्व, हे प्रभु ! ताहरी शुद्ध वीतराग दशा लही केतां पामीने ते क्षयोपशमीभाव सर्व आत्म सत्तानो सन्मुख पणो ग्रहे, आत्मावलंबनी थाय, एटले अरिहंतावलंबनी थया पछी एहीज सर्वगुण ते स्वस्वरूपावलंबनी थाय, गुणावलंबनी थाय अने हे प्रभुजी ! ताहरी योग केतां रत्नत्रयीना स्वरूपनी रसा केतां भूमिका ते अद्भुत छे. निर्विकार, निःसहाय निःप्रयत्न, निर्मल, निरंतर, सकलावबोधक जाणपणुं ते ज्ञान अने यथार्थ सर्वसापेक्ष अदूषितपणे सकल पदार्थने निर्धार करतो ते दर्शन तथा नीराग, निश्चल, निरामय, तत्त्वैकत्वरूप थिरतापारणाम ते चारित्र धर्म, ए रत्नत्रयी ते अनंत स्वभाव For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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