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दे० चो० बा०
ज्ञानादि अनंतगुणमां रमे, एहज तत्व चारित्रता प्रगटे, पछी शुचि केतां पवित्र निर्मल ध्यानते प्रथम अरिहंतादि गुणीना गुण स्वरूपमां तन्मयता रूपधर्मध्यान ध्यायीने पोताना अनंता पर्यायनी परिणति प्रागभाव अनुभवैकत्व सत्तागत तिरोभावनुं भासन एकत्व शुक्लध्यान भणी जे पुरुष आदरे, केतां अंगीकार करे, ते पुरुष सर्व विभाव क्षय करीने परम समतारसना धाम एहवा स्वामी श्री जिनेंद्र देव, तेहनी मुद्रा पामे, एटले वीतरागावस्था पामे, निर्मल पूर्णानंदी थाय ॥४॥
प्रभु छो त्रिभुवन नाथ, दास हुं ताहरो लाल ॥ दास० ॥ करुणानिधि अभिलाप, अछे मुझ ए खरो हो लाल । अ० आतमवस्तु स्वभाव, सदा मुझ सांभरो हो लाल ॥स०॥ भासन वासन एह, चरण ध्यानें धरो हो लाल ॥ च० ॥५॥
अर्थ:-- हवे प्रभुथी विनति करी पोतानो मनोरथ कहे छे, हे प्रभु! तमें त्रिभुवनना नाथ छो, सम्यग्दर्शनादि गुण पमाडवाना तथा रखवालवाना परम कारण छो, अने हुं तमारो दास छं, इहां श्री वीतरागनुं दासपणुं तो समकिती, देशविरति, तथा सर्वविरतिने विषे छे, पण इहां तो भद्रकपणानुं उपचार वचन छे, माटे हे करुणानिधि ! हे करुणाना समुद्र ! मुझने ए
खरो अभिलाष छे, ते कहुं छु, जे माहरो आत्मानो वस्तुस्वभाव “ सेण दीहेण हस्सेण वद्वेण तंसेण चौरंसेण परिमंडलेण किण्हेण नीलेण लोहीएण हालिद्देण सुक्किलेण सुरहिण दुरहिणा तित्तेण कडुएण कसाएण अंबिलेण महुरेण गुरुएण लहुएण सीएण उण्हेण णिण्हेण लख्खेण काऊण रुहेण संघेण इत्यीण
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