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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९६८ साधनी पंच भावना. साधवा रूप उत्तम नरभव हाथ आव्यो छे अने तुं गफलत राखुं के शी फीकर छे तो नरभवादि सर्वे धर्म सामग्रीनो जोग मलबो दुर्लभ छे एम जाणवुं ॥ ९ ॥ रोगादिक दुःख ऊपने, मन अरति मधेव । पूरव निज कृत कर्मनो, ए अनुभव देव ॥ रे जीव० ॥ १० ॥ अर्थः- रोगादिक दुःख उपने तुं मनमां अरति न ग्रहीश केभके पूर्व निज कृत कर्मनो एहवो अनुभव छे. वली तुं निज रूपे आरोग्य ज्ञायक अखंड शुद्ध तत्त्व छं तो ए अथीर देह संभालता छतां पण न रहे एवीने संभालवानी वेठ के प्रयास क्यां सुधी करीश ? माटे ताहरी आरोग्य ज्ञायकताने संभाल के जेथी निःप्रयासी शाश्वत स्वतंत्रसुख प्रगटे ॥ १० ॥ एह शरीर अशाश्वतो, खीण में सीत । प्रीत किसि ते ऊपरे, जे स्वास्थवंत || रे जीव० ॥ ११ ॥ अर्थः-- अनंत पुद्गल वर्गणाथी उपजेलुं एवं आ शरीर अशाश्वतुं क्षणमां क्षय पामे एवं छे ते उपर तथा स्वास्थवंत उपर शुं प्रीति करवी ? ज्यां सुधी तें आत्म शुद्धतामां प्रीत करी नयी त्यां सुधी ताहरो प्रीति गुण चौदराज लोकमां १८ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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