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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंचम श्रीसुमतिजिन स्तवनं. imirmirmirmirrrrr आत्मा कर्मरहित थाय ? केवारे माहारो शुफ पारिणामिकभाव प्रगटे ? केवारें माहरा गुण हुँ भोगवू ? अने अनंता जीवोनी एंठ जे पुद्गल तेने तजी पोतानो धर्म हुं केवारें भोगवीश ? एहवी रुचि उपजे पछी ते रुचिवंत जीव तत्त्वनी ईहा करतां काल गमाडे, ते जेम जेम तत्त्वनी ईहा करे, तेम तेम तत्वनो रंग प्रगटे, जेम जेम तत्त्वनो रंगी थाय, तेम तेम राग, द्वेष, अढार पापस्थानादि दोषथी उभगे, कहेतां निवृत्ते, तेम ढले केहेतां ते पणे परिणमे, तत्त्व लीहे, कहेतां तत्त्व मार्गे एटले स्वभावपरिणामी थाय. ए सर्व कार्य प्रभुप्रत्ये अवलंब्यां थाय ॥८॥ शुद्धमार्गे वध्यो साध्यसाधन सध्यो, खामिप्रतिछंदें सत्ता आराधे ॥ आत्मनिष्पत्ति तेम साधना नवि टके, वस्तु उत्सर्ग आतम समाधे ॥ अ० ॥९॥ अर्थः-ए रीत पारिणामिकपणे समर्यो ए आत्मा, शुद्ध मोक्षसाधनमार्गे वध्यो, साध्य जे पोतानो परमात्मभाव, तेहना साधननो उपाय सध्यो थको स्वामी जे श्रीसुमति जिन, तेहने प्रतिछंदें केहेतां तेहना जेवी पोतानी सत्ता छे तेने आराधे, कहेतां निपजावे, प्रभुजी जेवी सत्ता प्रगट करे, निःकर्मा निर्मल शुद्धानंद पद भोगवे, पछी आत्मा जेम जेम निष्पत्ति केहेतां निपजे तेम तेम साधना केहेतां कारणपणुं टके नहीं, एटले जेम कार्य निपजे, तेम कारणता टले, कार्यान्वयी कारण छे, कारण कांइ वस्तुधर्म नथी, जे वस्तु कार्यने सन्मुख थाय, For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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