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८४६ श्री महो० देव कृत अतीत जिन चोविशी.
॥ अथ विंशतितम श्री धर्मीश्वर जिन स्तवन ॥ अखीयां हरखन लागी हमारी अग्नीयां ॥ ए देशी ॥
॥राग प्रभाती॥ हुं तो प्रभु वारि छु तुम मुखनी, हुं तो जिन बलिहारी तुम मुखनी॥ समता अमृतमय सुप्रसननी, त्रेय नही राग रूखनी ॥ हुं० ॥१॥ भ्रमर अधर सिस धनु हर कमल दल, कीर हीर पुन्यम शशीनी ॥ शोभा तुछ प्रभु देखत याकी, कायर हाथे जिम असिनी ॥ हुं० ॥२॥ मन मोहन तुम सनमुख निरखत, आंख न तृपति अम्हची॥ मोह तिमिर रवि हरख चंद्र छवी, मुरत ए उपशमची ॥ हुं० ॥ ३ ॥ मनमी चिंता मटी प्रभु ध्यावत, मुख देखतां तुम जिनजी ॥ इंद्रि तृषा गई जिनेश्वर सेवतां, गुण गातां वचननी ॥ हुं० ॥४॥
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