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एकविंशतितम श्री शुद्धमति जिन स्तवन.
मीन चकोर मोर मतंगज, जल शशी घन नीचनथी ॥ तिम मो प्रति साहिब सुरतथी, और न चाहुं मनथी ॥ हुं० ॥ ५ ॥
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ज्ञानानंदन जाया नंदन,
आस दास नीयतनी ॥ देवचंद्र सेवनमें अहनिश, रमज्यो परिणति चित्तनी ॥ हुं० ॥ ६ ॥
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॥ अथ एकविंशतितम श्री शुद्धमति जिन स्तवन ॥ श्री जिन प्रतिमा हो जिन सरखी कही ॥ ए देशी ॥
श्री शुद्धमति हो जिनवर पूवो, एह मनोरथ माल ॥ सेवक जाणी हो महेरबानी करी, भव संकटथी दाल ॥ श्री० ॥ १ ॥ पतित उद्धारण हो तारण वच्छलं, करे अपणायत एह ॥ नित्य निरागी हो निस्पृह ज्ञाननी, शुद्ध अवस्था देह ॥ श्री० ॥ २ ॥
३०.