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चतुर्थ श्री महाजस जिन स्तवन.
प्रगटी जस शक्ति अनंती, निज कारज वृत्ति स्वतंती ॥ सु० ॥९॥
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गुण द्रव्य सामान्य स्वभावी, तोरथपती त्यक्त विभावी । प्रभु आणा भक्ते लीन, तिणे देवचंद्र पद कीन ॥ सु० ॥ १० ॥
॥ अथ चतुर्थ श्री महाजस जिन स्तवन ॥
आत्म प्रदेश रंगथल अनुपम, सम्यकदर्शन रंगरे, निज सुखके सधैया ॥ तुं तो निज गुण खेल वसंतरे ॥ निज० ॥ पर परिणति चिंता तजी निजमें, ज्ञान सखा के संगरे ॥ निः ॥ १ ॥
वास बरास सुरुचि केशर घन, छांटो परम प्रमोदरे ॥ नि० ॥ आतम रमण गुलालकी लाली, साधक शक्ति विनोदरे ॥ निज० ॥ २ ॥
ध्यान सुधारस पान मगनता, भोजन सहज स्वभोगरे || निज० ॥
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