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द्वादशम श्री मुनिसुव्रत जिन स्तवन.
जसु भगते निर्भय पद लहिए, तेहनी सेवामां थिर रहियो ॥ २ ॥ रागी सेवकथी जे राचे, बाह्य भक्ति देखीने माचे ॥
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जसु गुण दाझे तृष्णा आंचे, तेहनो सुजस चतुर किम वाचे ॥ ३ ॥ पूरण ब्रह्मने पूर्णानंदी,
दर्शन ज्ञान चरण रस कंदी ॥ सकल विभाव प्रसंग अफंदी, तेह देव समरस मकरंदी ॥ ४ ॥ तेहनी भक्ति भवभय भाजे, निगुण पिण गुण शक्ति गाजे दास भाव प्रभुताने आपे, अंतरंग कलिमल सवि कापे ॥ ५ ॥ अध्यातम सुख कारण पूरो, स्वस्वभाव अनुभूति सनूरो । तसु गुण बलगी चेतना कीजे, परम महोदय शुद्ध लहीजे ॥ ६ ॥ मुनिसुव्रत प्रभु प्रभुता लीना, आतम संपत्ति भासन पोना ||
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