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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठ श्री पद्मप्रभजिन स्तवनं. ६०३ लब्धि सिद्ध मंत्राक्षरे रे लाल, उपजे साधक संग रे ॥ वा०॥ सहज अध्यातम तत्वता रे लाल, प्रगटे तत्वीरंग रे ॥ वा०॥तु०॥५॥ अर्थः--बली दृष्टांत कहे छे. जेम आकाशगमन प्रमुख लब्धियो तेनी जे सिद्धि ते विद्याशक्ति मंत्राक्षरमां छे, पण ते तेहवो उत्तर साधक मले, तेवारें नीपजे, तेम सहज स्वभावरूप जे अध्यात्म कहेतां आत्माथी तन्मयपणे रही, जे स्याद्वादरूप ज्ञानदर्शनादिक आत्मिकपरिणतिरूप तत्त्वता, ते यद्यपि वस्तुधर्मे आत्माने विषे छती छे, पण जेवारें निष्पतत्त्वी शुद्ध निर्मल, निरावरण, आत्मस्वरूपभोगी, आत्मरमणी, आत्माश्रयी, असंख्यात प्रदेश पुद्गलसंश्लेषरहित, एवा शुद्धदेवने आलंबनें एक रंग करे, तेवारे ज्ञानावरणादि कर्मथी रहित निरावरणरूप प्रगट भावनुं छतापणुं नीपजे ॥५॥ लोह धातु कांचन हुवे रे लाल, पारस फरसन पामि रे ॥ वा०॥ प्रगटे अध्यातमदशा रे लाल, व्यक्तगुणी गुणग्राम रे ॥ वा०॥तु०॥६॥ अर्थः--बीजो दृष्टांत कहे छे. लोहधातुमध्ये कांचन कहेता सुवर्ण थवानी सत्ता छे, तोपण पारस. पाषाय प्रमुख बाह्य निमित्त पामीने पोतानुं सोनापणुं लहे छे .म. भव्य जीवनी पण शुद्ध आत्मिकदशा यद्यपि सत्तारूपे छे, पण व्यक्त '५७ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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