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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सामान्य कलशरूप स्तवन. ७८३ केतां सर्वथी दलवे करीने अचल केतां चपलता रहित अक्षय hai अविनाशीपणुं निराबाध केतां अव्यावाध पद प्रगटे, ते सर्वनुं मूल कारण जिनराज श्री वीतराग देवथी सेवना भाव रुचे, द्रव्य तथा भावथी प्रगटे, माटे सेवना करवी एहीज हित छे, पूर्णानंद परमानंद अनंत गुणना भोगरूप स्वसि - द्वता दशा लही केतां पामीने विलसे केनां अनुभवे, सिद्धनिष्पन्न परनिष्ठितार्थ आत्मिक समाधि, ज्ञानदर्शन समाधि, जव्याबाधानंद समाधि भोगवे, पाने, ए श्री जिनेश्वरना सेवननुं फल एहीज परम निर्वाणपदनी प्राप्ति छे, तेणें सर्व विकल्प कल्पना निवारीने, सर्वज्ञ सर्वदशी शुद्धतत्त्वी परमेश्वर निर्वि कारी देवनुं सेवन करो, एहीज परमसुखनु पुष्ट कारण छे ॥ ६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनचंद्रनी सेना, प्रगढे पुण्य प्रधानो जी ॥ सुमति सागर अति उल्लसे, साधु रंग प्रभु ध्यानो जी ॥ चो० ॥ ७ ॥ *** . अर्थ :-- श्री जिनचंद्र अरिहंत देव तेहनी सेवना करतां पुण्य प्रधान प्रगटे अने श्रेष्ट सुमति जे परमानंद साधकमति ते उल्लसे केतां उल्लास पागे अने प्रभुने ध्याने साधु केतां भलो रंग थाय. बीजो अर्थ श्रीजिनचंद्रसूरि भट्टारक श्री खरतर गच्छावीश्वर तेहना शीव्य श्री पुण्यप्रधानोपाध्याय, तेहना शिष्य श्रीमति सागरोपाध्याय, तेहना शिष्य श्रीसा'रंगवाचक, ए स्तुति कर्त्तानी परंपरामां बहुश्रुत थया, तेहनां नाम कह्यां ॥ ७ ॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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