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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६४ दे० चो० बा० एकत्वपणुं नीपजे, ते जेवारें स्वरूपें एकत्वपणुं पामे, तेवारें शुक्लध्यान प्रगटे जे स्वरूप एकत्वपं तेहीज शुक्कुध्यान छे, ते शुक्लध्यानें करी पोतानी साध्यता साधी केतां नीपजावीने तेहथी मुक्ति जे सकलकर्मरहीतपणं तेहनुं निदान केतां मूलकारण लहीयें, केतां पामीयं ॥ ६ ॥ अगम अरूपी रे अलख अगोचरु, परमातम परमीशो जी ॥ देवचंद्र जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशी जी ॥ ने० ॥ ७ ॥ अर्थ:- तेमाटे सर्व भव्य आत्मार्थी अव्यात्म सुखरुचि एहवं तव सेवे, ते कहे छे. अगम केतां जेहनुं गम्य नहीं, अथवा जेमांहे अजाण जीवयी प्रवेश थाय नहीं, वली जेहनुं रूप, गंध, वर्ण, रस, संस्थान नहीं, तेमाटे अरूपी, तथा अलख hai पुलाभिलाषी, एकांतवादी, एवा नैय्यायिक, वैदांतिक, सांख्य मैमासिक, वैशेषिक, बौद्ध, नास्तिक, तथा जे एकांत द्रव्यदयादिक पक्षग्राही एवा जैनलिंगी इत्यादिकथी लखाय नहीं, एटले ओलखाय नहीं, वली अगोचर केतां इंद्रियगोचर नहीं, अतींद्रिय पदार्थ ते अतींद्रियस्याद्वादज्ञानें सापेक्ष उपयोगें ध्याननी धारणायेंज गोचर छे, वली परमोत्कृष्ट सर्व विभाव रहित अनंत गुणप्राग्भावरूप आत्मा छे, वली परमीश केतां उत्कृष्ट अविनाशी सहज अनंतगुण पर्याय धर्मना ईश्वर छे, वली नरदेव ते चक्रवतीं भावदेव ते भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक, ए चार निकायना देवता, तथा धर्मदेव ते २२२ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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