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अष्ट प्रवचन मातानी सझायो.
योग वर्त्तना कंपनारे,
नवि ए आम धर्मरे ॥ मुनि० ॥ ४ ॥ वीर्य चपल परसंगसीरे,
एह न साधक पक्ष । ज्ञान चरण सहकारनारे,
वरतावे मुनि दक्षरे ॥ मुनि० ॥ ५ ॥ सविकल्पक गुण साधनारे,
ध्यानीने न सुहाय । निर्विकल्प अनुभव रसीरे ॥ आत्मानंदी थायरे ॥ मुनि० ॥ ६ ॥ रत्नत्रयीनी भेदतारे,
एह समल व्यवहार । त्रिगुण वीर्य एकत्त्वतारे,
निर्मल आत्माचाररे ॥ मुनि० ॥ ७ ॥ शुक्लध्यान श्रुतलंबनी रे,
ए पण साधन दाव |
वस्तु धर्म उछरंगमांरे,
गुण गुणी एक स्वभावरे ॥ मुनि० ॥ ८ ॥ परसहाय गुण वर्त्तना रे,
वस्तु धरम न कहाय ।
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