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द्रव्यप्रकाश
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॥ शिष्यप्रश्न ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ निहचे असुद्धनय व्यायरागादिक चय ताहीको व्यापक होय कर्मसौ करतुहे, सोई. व्यवहार लई वेदक सभाव गहि गतसमय कृत क्रिया फलको गहतु हे; कृतकर्म भोगता हे नुतनको करता हे एक समे एक जीव क्रिया दौ धरतु हे, हमकुं संदेह एह कहो गुरु गुनगेह तुंहारे सिद्धांत वीचीके सो अमिमतुहे. ॥ ६ ॥
॥ अथ गुरुउत्तर कथन ॥
॥ सवैया इकतीसा ॥ सुद्धपने अपने गुनको करता यह जीव जथारथ एही, ज्ञान सरूप अनुप सधे गुण रासि वधे गतरोष अनेही; भावत कर्म करे पर योग विभाव संजोग अज्ञानको गेही, ताही ते द्रव्यत कर्म उपाधि लगे जीउको किरिया द्वयकेही ॥७॥
॥दोहा॥ विदुष रागादि पर, कीने ताके रोध; द्रव्यकर्मको रोध हे, ताते निर्मल बोध. ॥८॥
॥सवैया इकतीसा ॥ ज्ञानरूप ज्ञानमांहि क्रोध भाव क्रोधमांहि ज्ञान क्रोध एकतान होय कहुँ वातमे, ज्ञानरूप आतमामे रागदोष मोह नाही वस्तुको स्वभाव भेद सुद्धताके ध्यानमे; एसो ज्ञान धरे सोतो कर्म कोन बंध करे वरे न अशुद्ध मोह जग्यो भेद ज्ञानमे, चेतनाहे जीव वस्तु कर्म पुद्गल वस्तु वस्तु गुण कृति भेद जिनके वखानमे. ॥९॥
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