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वीरजिनवरनिर्वाणः
अवन्ने अगंधे अफासे अरूपी, प्रभु तुं थयो अरस संठाण हीनो, अमोहि अकर्ता अभोगी अयोगी, अवेदी अखेदी गुणानंद पीनो.
॥२॥ प्रभु०॥ प्रभुजाणतोज्ञानयी तुं सर्व छति, वस्तुने देखतो सर्व सामान्य भावो आतमा गुणरमण, अनुभव रसे घूमतो ते लह्यो पूर्ण शुद्धात्म भावो.
॥३ ।। प्रमु० ॥ आत्मगुण दान लाभे अनंते वस्यो, भोग उपभोग निज धर्म लीनो; सकल गुणकार्य सहकार विरय वस्या, चपल वीरय गये थिर अदीनो.
॥४॥ प्रभु०॥ तुं क्षमी तुं दमी तुंहि मार्दवमयी, आर्य विमुत्ति समता अनंति; तुं असंगी अभंगी अनंगी प्रभु, सर्व प्रदेश गुणशक्तिवंति ॥५॥
प्रमु० ॥ प्रमाणी प्रमेइ अमेइ अगेहि, अकंपात्म देशी अलेशी अवेशो; स्वयं ध्यानमुक्तो सदा ध्येयरूपो मुनिमानसे जेहनो वास देशो.
॥६॥ प्रभु०॥ ॥ दोहा॥ सिद्ध थया जिन जाणिने, इंद्रादिक सुख्यू हा शोकातुर आतूर रखें चौविह संघ समूह. ॥१॥ है है नाथ वियोगथी, ए जिवन निष्काम; मोक्षमार्ग साधन भणी, कीम पहोंचसे हाम. ॥ २ ॥ वीर वियोगे जीववो, ते निठुर परिणाम; धन तनु वनिता संपदा, स्युं कीजे सूरधाम. ॥ ३ ॥ जग उपगारि विछड़ये, स्ये लेखे सूर शक्ति; प्रबल मने करस्युं किहां, बद् विस्तारि भक्ति. ॥४॥
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