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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२० दे० चो० बा० पणे परिणम्या नथी, पण अनागतकाले भावसेवनापणे परिणमशे, ते भव्यशरीर द्रव्यनिक्षेपो कहियें, ए सर्व द्रव्यनिक्षेपो ते नैगमनयने मतें छे, ते बीजो भेद. तथा जे सेवनानी प्रवृत्ति अंतरंग भावसेवनाने कारणपणे वरते ते तद्व्यतिरिक्त द्रव्यनिक्षेपे सेवना कहि ये. ए बीजो भेद कह्यो. तेमांहे जे योगनी वंदन नमनादिक प्रवृत्ति, ते व्यवहारनये द्रव्यसेवना. अने जे अंतरंग विकल्पं बहुमानादिक, ते ऋजमूत्रनये द्रव्यसेवना. ए रीतें द्रव्यसेवनानुं स्वरूप का, एटले जे अरिहंतना चार निक्षेपरूप कारण दृष्टिगोचर, श्रवणगोचर, स्मरणगोचरपणुं पामीने जे जीव, वंदन, करजोडन, नमन, मस्तक नमाववं, इत्यादिक अभ्युत्थान अंजलि, आधिनतादिकरण, चंदन पुष्पादिके करीने अर्चन, वली गुणग्राम जे मुखथी मधुर ध्वनिये गुण कहेवा, ते द्रव्यसेवा जाणवी, अने जे आत्मा संसार पराङ्मुख अरिहंतना गुणनुं अत्यंत बहुमान, असंख्यात प्रदेशें अरिहंतनी अरिहंततानी आश्चर्यता, अद्भुतता, तथा अरिहंतनिमित्तना विरहें अक्षमता, अने अरिहंत ईहारूप परिणाम तेथी अभेदपणे थवानी भावपणे निपजाववानी ईहा, ते द्रव्यसेवा लेखे छे, परंतु भावरुचिपणा विना द्रव्यप्रवृत्ति ते बाललीला समान छे, तेमाटे इहां कह्यो जे भाव तेथी अभेद थवानी ईहा सहित जे सेवा ते द्रव्यसेवा जाणवी, * द्रव्यप्रवृत्ति विना एकला भावधर्मने पण तचार्थटीकामां आचाय साधन का छे. तथा सम्मतिग्रंथे । चरण करण प्पहाणा, ससमय परसमय मुक्कवावारा ॥ चरणकरणरस सारं, नित्थय य * एकली द्रव्यप्रवृत्ति मारि संयमकल्प छ, For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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