________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
द्वादश श्री वासुपूज्यजिन स्तवनं.
६७५
भक्ति तेहीज सिद्धता नीपजववानो पूर्ण उपाय छे ॥ ६ ॥ इति षष्ठ गाथार्थः ॥
जिनवर पूजा रे ते निजपूजना रे, प्रगटे अन्वयशक्ति ॥ परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद व्यक्ति ॥ पू० ॥ ७॥ अर्थः-जे जिनराजनी पूजा भक्ति करवी ते पोताना आत्मानी पूजना करवी छे, आत्मगुण वधारवा छे, आत्मसंपदानी पुष्टि करवी छे, केमजे जिनसेवनाथकी पोताना अन्वयी गुण जे सहजज्ञानानंदिक अनंतशक्ति ते पोषे, प्रगटे, निरावरण थाय ते जीवपरमानंदनो विलासी थई, अनुभवे केतां भोगवे, सर्वदेवमां चंद्रमा समान जे पद परमात्मता, पूर्णता, निरावरणता, निरामयता, तत्त्वभोगता, स्वरूपानंदतारूप, वेहनी व्यक्ति केतां प्रगटता जे कर्मावर्णे अनादिनी आवृत छे, ते कर्मक्षय थये अक्रिय, अनवच्छिनता, शक्ति प्रगटे, शुद्ध थाये, तेमाटे निष्पन्न जिननी भक्ति ते परमात्मता रूप आत्मसिद्धतानुं कारण छे, तेमाटे हे मोक्षार्थी जीवो तमे श्रीवीतराग अरिहंतनीपूजना ते विधि सहित निरमिलाये तत्वसाध्यतायें करो, एहज उत्तम उपाय छे ।। इति श्रीवासपूज्यजिन० ॥
For Private And Personal Use Only