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दे० चो. बा. करे, एटले पहेलां हुं परमपूज्य अनंतगुणी छु, ए निर्धास्रूप सम्यक् दर्शन प्रगटे, स्याद्वादसत्तार्नु भासन थाये, पछी जे सत्ता प्रगटी, तेहनो रमण अनुभवरूप चारित्रगुण प्रगटे, पछी निरावरण केवलज्ञान नीपजे, ए परमपूज्य श्रीअरिहंतने पूजवाथी पोतानो पूज्यस्वभाव प्रगटे ॥ ५ ॥
आप अकर्ता सेवाथी हवे रे, सेवक पूरणसिद्धि ॥ निजधन न दिए पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर ऋद्धि ॥ पू०॥६॥
अर्थः-श्री वीतराग पोते परजीवना मोक्षना अकर्ती छे, केम जे परकर्त्तापणुं जीवद्रव्यनो धर्म नथी, तेमाटे पोते परजीवनी सिजिना अकर्ता छे, पण श्रीप्रभुजीनी सेवायी सेवक जे भक्त, तेहने हुवे केतां थाय शुं थाय तो के संपूर्ण सिमता निपजे, निज केतां पोतानो धन जे अनंत ज्ञानादिकगुण ते प्रभु कोइ बीजाने आपता नथी, एटले कोई पोतानो गुण बीजाने आपे नहीं, अने ते गुण पण पोताना द्रव्यने मुकी बीजामां वर्ते नहीं, अने कोइ द्रव्य कोइ द्रन्यनो गुण ग्रहे पण नहीं, सर्व द्रव्य पोते पोतानी सत्ताना स्वामी छे, तेमाटे अरिहंत पोते काइ आपताज नथी परंतु जे अरिहंतने आश्रित सेवे, ते निचे अक्षय केतां जेहनो क्षय न थाय तथा जे विनाश न पामे, तथा अक्षर केतां खरवु जरवू जेहमां नथी एवी अविनाशी अक्षर अनंत आत्मसंपदा पूर्णानंदादिक शुद्धि लहे केतां पामे, माटे जिन
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