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द्वादश श्री वासुपूज्यजिन स्तवनं.
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राग भक्ति जाणवी. तथा हुं सहुथी मोटो माहरे अरिहंत परमेश्वर जेवो धणी छे, हुं मोक्षना मार्गने पाम्यो, अने पोताना आत्मगुणने प्रभुनी प्रभुताने अनुयायीपणे वर्तावे, एहवो लीन थको रहे, तेहने तत्वभक्तिवंत कहिएं. एहवा समकिति, देशविरति, सर्वविरति, जेणे पोतानी मूलपरिणति प्रभुताथी मेलवी छे. आत्मपरिणतिरूपउत्संगें प्रमुनी प्रभुताने रमावी रह्या छे, महानुभाव छे, ते शुद्धभावपूजा जाणवी ॥४॥ इति चतुर्थ गाथार्थ ॥
शुद्धतत्व रस रंगी चेतना रे, पामे आत्मस्वभाव ॥
आत्मालंबी निजगुण साधतोरे, प्रगटे पूज्यस्वभाव ॥ पृ०॥५॥
अर्थः-एम शुद्धनिर्मल तत्त्वी श्रीअरिहंतदेव सिद्ध भगवान् तेहनारसें रंगाणी थकी तेहना गुणनी भोगी जेवारे चेतना थयी, अन्य विकल्प टाली अनुभवभावना सहित प्रभुस्वरूपे रसीली थइ तेवारे ते चेतना पोताना आत्मस्वभावने पामे, आत्मस्वभावरुचि, आत्मस्वभावोपयोगी, आत्मस्वभावरमणी, आत्मानुभवी थयो, एटले उपादानावलंबी अवस्था पामे; अने जेवारें ए भव्यजीव आत्मावलंबी थाय, तेवारें पोताना गुणने साधतो निपजावतो, सम्यक् दर्शनादिक गुणने प्रगट करतो, गुणस्थान क्रमें दोषनी हाणी गुणपाग्भाव स्वरूपएकत्व स्वरूपानुभवी थतो थको तल्लीनताने निपजाववे पोतानो अनादिकालनो सत्तागतपूज्य स्वभावने प्रगट
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