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एकवीशप्रकारी पूजा.
४ कुसुमपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ शतपत्री वर मोवरा, चंपक जाय गुलाब ।। केतकी दम णय बोलसिरि, पूजो जिन भरी छाब ॥ १४ ॥ ढाल ॥ अमल अखंडित विकसित, शुभ सुमनी घणि जाति ॥ लाखीणो टोडर ठवो, आंगी रची बहु भाती ॥ गुणकुसुमें निज आतमा, मंडित करवा भव्य ।। गुणरागी जत्यागी, पुष्प चढावो नव्य ॥ १५ ॥ काव्यम् ॥ जगवणी पूजतां विविधफूलें, सुरवरा ते गणे क्षण अमूले ॥ खांति धरी मानवा जिनप पूजे, तस तणां पाप संताप चूजे ॥१६॥ इति चतुर्थ कुसुमपूजा ॥ ४ ॥
५ वासपूजा ॥
॥दोहा॥ । बावन चंदन कुंकुम, सुरभिजात मंदार ॥ घनसारेयुत वासशु, पूजो जिनप उदार ॥ १७ ।। ढाल ॥ सरस सुगंधित वासे, वासे जिनपति जेह ॥ तस मिथ्यात विनासे, वासे समकित देह ॥ निज गुण वासित आतमा, गततम होये निःशंक ॥ तत्त्वालंबी चेतना, टाले कर्म कलंक ।। १८ ॥ काव्यम् ॥ सुरभिवर वाससु भक्तिरागें, विबुधवर वासतां एम मागे ॥ तुज गुणज्ञानमां लीन अप्पा, थिर रहो दूर छंडी विगप्पा ॥ १९ ॥ इति पंजम वासपूजा ॥ ५ ॥
६ धूपपूजा ॥
॥दोहा॥ ॥ कृष्णागरु मृगमद तगर, अंबर तुरक लोबान । मेलि
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