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साधुनी पंच भावना. सूक्ष्म अर्थ अगोचर द्रष्टिथोरे, रूपी रूप विहीण। जेह अतीत अनागत वर्त्ततारे, जाणे ज्ञानी लोन ॥ श्रुत० ॥ २ ॥
अर्थः--जे सहजे दृष्टिगोचर न आवे एवा अर्थरूपी के अरूपी अतीत अनागत के वर्तमान विषय जेम होय तेम ज्ञाने लीन होय ते ज्ञानी जाणे छे तेम रूपी अरूपी कालादिक तथा आत्मगुणने प्रशस्त अप्रशस्त विचारी मूक्ष्म अर्थ दृष्टिगोचर करो ॥२॥
नित्य अनित्य एक अनेकतारे, सदसद भाव स्वरूप । छ ए भाव एक द्रव्य परिणम्यारे, एक समयमां अनूप ॥ श्रुत० ॥३॥
अर्थः--सकल द्रव्यमां समकाले नित्य, अनित्य, एक अनेक, सत्य असत्य, एवा छए भाव परिणमे छे ए अनुपम रूपे द्रव्य विचारो ॥३॥
उत्सर्ग अपवादपदे करीरे, जाणे सहु श्रुत चाल। वचन विरोध निवारे युक्तिथोरे, थापे दूषण टाल ॥ श्रुत० ॥ ४ ॥
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