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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अष्टादश श्री अरनाथजिन स्तवनं. ७२५ प्रवर्त्तन नथी, तथा कर्त्ताने पण ते मेलववानो प्रयास करवो पडतो नथी, अने कार्ययी भिन्न केतां जुदो छ, तथा नियत केतां नियमा निश्च ते जोइये, अने बहुभावी केतां अनेक बीजा सर्व कार्यमां भावी छे, ए री ते कारणीक छे, ते अपेक्षाकारण कही ये, जेम भूमी तथा काल तथा आकाश ए विना कोई बटादि कार्य थतुं नथी, अने भूमी प्रमुख जेम घटनुं कारण छे, तेम अन्य बीजा कार्योनुं पण कारण छे, पण घटनु कारणपण पण छतुं छे, वली कर्ता जेम उपादान तथा निमित्त कारणनो व्यापार करे छे, तेम एनुं प्रवर्तन करतो नथी ॥७॥ एह अपेक्षा हेतु, आगम माहे कह्यो री ॥ कारणपद उत्पन्न, कार्य थये न लह्यो री ॥८॥ अर्थ:----तेथी ए अपेक्षा हेतु केता कारण आगममा तथा तत्त्वार्थादिक ग्रंथोमां का छे. “ यथा घटस्योत्पत्तौ अपेक्षाकारण व्योमादि अपेक्षते तेन विना तदभावाभावात् ॥ निर्व्यापारभपेक्षाकारण मितितत्त्वार्थवृत्तौ ॥ तथा विशेषावश्यकेआव३यके अवधिज्ञानाधिकारे " इहां द्वारभूत शिलातलादि द्रव्यानुत्पद्यमानस्यावधिः सहकारकारणानि भवंति अत्र सहकारकारणंगवेपं इति " ए चार कारणनुं स्वरूप कह्यु, हवे कारणपद केतां जेहमांहे कारणपण ते छतो मूलगो धर्म नथी, पण उत्पन्न छ, अने ते जेवारे कर्त्ता ते कार्यनो अर्थी थइने जे उपकरण तथा मलपिंड ते रूपें कार्यपणे प्रवर्त्तावे, तेवारे ते तेह- कारण कही ये एटले जेम काठमां दंडादिक अनेक पदार्थना छतापणानी योग्यता छे, पण कोई कर्ता, दंडन कारण उत्पन्न करे, For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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