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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठ श्री पद्मप्रभजिन स्तवनं . ६०५ जिनराज, तेहना विवहार उपदेश समवसरण देखी अद्भुतताने अवलंबी, गुणावलंबी थइ अनेक जीव स्वधर्मसंपदा वरी सिद्धि पाम्या तथा अरिहंतनो भावनिक्षेपो ते अरिहंत द्रव्यना गुण जे केवलज्ञानादि तथा पर्याय ते अगुरुलघुतादि तेहनी अनंत परिणतिनुं जे भासन, श्रद्धान तथा रमण केतां पोतानुं तच्च तेने अवलंबतां अनेक जीव मोक्षरूप लक्ष्मी पाम्या; माटे ए श्री अरिहंतना जे नामादि चार निक्षेपा छे, ते भवरूप महा समुद्रमध्ये सेतु केतां मोहोटी पाज समान छे. माटे प्रभुना नामादि चार निक्षेपाने अवलंबीने आत्मसिद्धि करवी ॥ ७ ॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥ स्थंभन इंद्रिय योगनो रे लाल, रक्तवर्ण गुण राय रे ॥ वा० ॥ देवचंद्र वृंदे स्तव्यो रे लाल, आप अवर्ण अकाय रे || वा० ॥ तु०॥८॥ अर्थ:-- वली श्रीपद्मप्रश्न स्वाभीनुं रक्तवर्ण शरीर ते सामा जीवना इंद्रिय तथा योगनुं स्थंभन छे, एटले इंद्रियो वर्णादिकने अवलंबीने रहे भाटे प्रभुजी राते वर्णे छे, गुणगांभीर्यादिक तेहना राजा छे, देव जे धर्म देव ते साधु, नरदेव ते चक्रवर्ती, भावदेव ते भवनपति प्रमुख, तेहमां चंद्रमा समान, वली इंद्र गणधरादिक तेहना वृंद कहेतां समूह, तेणे स्तव्या, पण प्रभु केहवा छे ? अवर्ण छे, अगंध, अफरस, एहवा अकाय छे. शरीर रहित छे, एटले भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मरहित छे. सकल पुलातीत छे, एहवा श्रीमद्मप्रभ देव ५० For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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