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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०६ दे० चो० बा० NAARNanAna ते मने आधारभूत छे, परमशरण छे, एना निमित्तें परमपद नीपजे ॥ ८ ॥ इति अष्टम गाथार्थः ।। इति षष्ट पद्मप्रभजिन स्तवनं संपूर्ण ।। ॥अथ सप्तम श्री सुपार्श्वजिन स्तवनं ॥ हवे श्रीसुपार्श्व प्रभुने सहजधर्मरूप तत्त्व संपदापणे स्तवे छे. जगत्ना जीव पुद्गलानंदी छे, ते नवा पुद्गलने लेवे करी आनंद पामे छे, पण ते पुद्गलसंयोगजन्यसुख, तथा दुःख, ते आत्महित नहीं विभाव छे माटे, अने जे आत्मानुं सहज सुख ते आत्मधर्म छे, ए रीतें आगममध्ये उपदेश छे, ते कहे छे जे आत्माना अनंता गुण छे, ते गुणगुणतुं सुख जुदुं जुएं छे, अने एक अव्याबाध सुखरूप आत्मधर्म जूदो छे, एक एहवी व्याख्या छे तथा आत्माना ज्ञान दर्शनरूप गुण, ते मूलगुण छे, अने वीर्यादिक सर्व ते गुणनी प्रवृत्तिरूप धर्म छे. एक एवी पण व्याख्या छे. अने १ ज्ञान, २ दर्शन, ३ चारित्र, ४ दान, ५ लाभ, ६ भोग, ७ उपभोग. इत्यादिक अनंतगुण आत्माने विषे छे, तथा विशेषावश्यकमांहे कयुं छे. क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञान केवलदर्शन सिद्धत्वानि पुनः सिझावस्थायामपि भवंति । अन्ये तु दानादिलब्धिपञ्चकं चारिसिमस्यापीच्छंति तदावरणस्य तत्राप्यभावात् आवरणाऽभावेपि च तदसत्त्वे क्षीणमोहादिष्वपि तदसत्त्वप्रसंगात् ततस्तन्मते चारित्रादीनां सिद्धावस्थायामपि सद्भावःपुनस्तत्त्वार्थे पुनरप्यादिग्रहणं कुर्वन् ज्ञापयति ॥ अत्राऽनन्तधर्मात्मकतयाऽशक्याः प्र. स्तारयितुं सर्वे धर्माः प्रतिपदमप्रवचनजेन तु पुंसा यथा संभ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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