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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org एकादश श्री श्रेयांसजिन स्तवनं. सेवक साधनता वरे, निजसंवर परिणति पाम रे ॥ मु० ॥ ७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२१ अर्थः- एहवा प्रभुनी सेवनानुं जे फल थाय, ते कहे छे. प्रभु जे श्री श्रेयांसनाथनिष्पन्नतत्त्वी, निरामयी, निरावरणी, तेहनी प्रभुता अनंतज्ञानमयी, सर्व संवरी अनंतानंदरूप परमेश्वरता, असहायता, सर्वशक्ति निरावरणता, अनंतपर्याय स्वकीयकार्य कर्त्तापणारूप निःकर्मता, निःसंगता, प्रभुत्व, विभुत्व, ग्राहकत्व, व्यापकत्व, आधारत्व, कारकत्व, कारणत्व, कार्यत्व, इत्यादि प्रभुता एक एक प्रदेशें अनंतगुण पर्याय प्राग्भाव परिणमन रूप स्वरूपसंपदाने संभारतां, चित्तमां स्मरण करतां, तथा गातां, केनां, स्वरयोगें गावतां गुणनो ग्राम समूह करतां थकां सेवक तवरुचि आत्मसिद्धतानो अर्थी ते निष्पन्न पर वरन बहुमानयी जीव अनादिनो बाधक, स्वरूपपराङ्मुख थइ रह्य छे, ते जीव साधनता ते आत्मस्वरूप निरावरण करवा रूप साधन अवस्था, उत्सर्ग अपवाद समकिती मांडी अयोगी चर्म समयरूप गुणस्थानारोहण, दोषत्याग, गुणप्रागभाव अधिक गुणनी रुचि, पूर्ण तच्वनी ईहारूप साधनापं पामे, ते निज कहेतां पोतानी संवरपरिणतिने पामी करीने एटले प्रभुगुणउपयोगें वर्त्ततो थको चेतना गुणीना गुणने अनुयायी थाय, तेवारें स्वरूपईहारूप दर्शनगुण परिणमे, तेथी पोतानी संवरपरिणतिने पामे, ते जीव तवताने साधे, अने साध्यरसीनी जे साधकता ते परमानंदनुं कारण छे ॥ ७॥ इति सप्तम गाथार्थः ॥ For Private And Personal Use Only ६६३
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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