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प्रथम श्रीऋषभजिन स्तवन.
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NAAMA
प्रभुजीने अवलंबता, निज प्रभुता हो प्रगटे गुणरास ॥ देवचंद्रनो सेवना, आपे मुज हो अविचल सुखवास ॥रु०॥६॥
अर्थः--ए रीते प्रभुजीने अवलंबतां कहेता आश्रयतां पोतानी प्रभुता' अनंतगुणपर्यायरूप प्रगटे, निरावरण थाए, गुणनो राशि समूह, सर्व व्यक्त थाय, तेमाटे देव जे चार निकायना देवता अथवा नरदेवादिकमांहे चंद्रमा समान श्रीअरिहंत देव, तेहनी सेवना भक्ति, द्रव्यथी तथा भावथी करवी, ते आपे कहेतां दे, मुने अविचल सुख, अव्यावाच सुख, तेहनो वास कहेतां रहेवू, एटले भावार्थ ए जे, श्रीपरमात्मा, परमपुरुषोत्तम अरिहंतनी सेवना असंयम आस्रवत्याग, संयम संवररूपपरिणमन, ते सेक्ना कहियें ॥ उक्तं च ॥ आणाकारी भत्तो, आणा छेईओ सो अभत्तोत्ति ॥ इति ॥ तथा अरिहंत प्रभु पोतें तो पोतानी सेवनाना अर्थी नथी, पण सर्व जीवोने स्वहित करवा वास्ते एहीज करवू छे, अने अरिहंत आज्ञा ते कोईनो हुकम मनाववो नथी, पण श्रीअरिहंत देवें केवल ज्ञाने दीडं, जे सर्व जीवोने पोतानां ज्ञान, दर्शन, चारित्र, ते परमानंदहेतु छे, तेमाटे जे रीतें ज्ञान, दर्शन, चारित्र नीपजे, ते मार्ग उपदेश्यो, ते प्रमाणे वर्तवू. ते अरिहंतनी सेवना करतां निश्चय मोक्षपद, सर्व उत्तम जीव पामे, माटे प्रमुजीनी सेवा, ते अविचल सुख आपे, ते कारणे सर्व भव्य जीवें सकल संसार कार्य तजी सर्व परभावथी निस्पृही
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