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दे० चो० बा० अर्थः--हवे विशेष स्वभाव कहे छे. द्रव्यनो धर्म जे ज्ञानादिक तेहनी प्राग्भावता केतां प्रगटपणुं ते आविर्भावधर्म, बीजो ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि, सर्व गुणनी शुद्धतायें सर्व स्वगुणतुं भोगीपणुं ते भोग्यता धर्म तथा कर्तृता केतां कर्तापणुं सर्व प्रदेशकार्यानुगत समुदायप्रवृत्ति कार्योत्पादकं कर्तृत्वं ते धर्मास्तिकायादि द्रव्यने प्रदेशे प्रदेशे चलनादिसहायरूप कार्यनो थावो, ते भिन्नभिन्न प्रदेशने आश्रयें छे. अने जीवद्रव्यनुं जाणवा देखवारूप कार्य, ते सर्व, असंख्यप्रदेशना मलवायी छे, ते माटे जीव द्रव्यने विषे कर्त्तापणुं विशेष स्वभाव छे. वली रमण जे कोईकने विषे रमवु तथा परिणामिकता जे परिणामिकपणुं ते शुद्ध स्वप्रदेशीपणुं ते पण विशेष स्वभाव छे, तथा तत्त्व केतां वस्तुमां मुलधर्मे जे चैतन्यता ते पण विशेष स्वभाव छे, व्याप्य व्यापकपणुं तथा ग्राह्य ग्राहकपणं तथा आधाराधेयपणुं संरक्षणपणुं स्वस्वामिभावादिक ए सर्व विशेष स्वभाव जाणवा. ए रीतें सामान्य स्वभाव तथा विशेष स्वभाव, ते सर्व श्रीधर्मनाथ परमेश्वरना निर्दोष थया, तेहमां पण सामान्यस्वभाव तो निर्दोष सदा हता, परंतु पर संयोगे विशेष स्वभावनो द्विधाभाव थयो हतो, ते हेश्री धर्मनाथ प्रभुजी तुमे स्वरूपालंबनी थई करणगुणे जे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अने वीर्य, तेहने स्वरूपथी एकत्व करी, स्वरूप प्राग्भाव करी, स्वरूप कर्या छे, माटे निरामय थया छो॥५॥ ॥ इति पंचम गाथार्थः ॥ संग परिहारथी स्वामि निजपद लद्यु, शुद्धआत्मिक आनंदपद संग्रा ॥
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