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पंचदश श्री धर्मनाथजिन स्तवनं.
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६ छटो अनेक पर्यायनोपरावर्त छे, पण वस्तुना मूलरूपथी पलटे नहीं, ते रूज रहे छे, ए नियतपणा माटे व. स्तुमां अभव्यस्वभाव छे.
ए सर्व खभाव सम्मतितर्क तथा धर्मसंग्रहणीना व्याख्यानथी जोवा, ए सामान्यस्वभाव छे ते पदार्थनो द्रव्यास्तिकमूलधर्म छे, एहवा परिणमनपणाथकी सर्व पदार्थ स्याद्वादि कहेवाय छे, जे समय एक ते समये अनेक, जे समये नित्य ते समय अनित्य, जे समये अस्ति, ते समय नास्ति, जे समय मिन्न ते समय अभिन्न, जे समय वक्तव्य, ते समये अवक्तव्य, जे समयें भव्य ते समये अभव्य इत्यादिक एम वली एक अनेक नित्यानित्यादिक एक एक स्वभावनी सप्तभंगी थायें. तेवा अनंता स्वभावें अनंतीसप्तभंगीयो द्रव्यनेविषे थाय, ते स्याद्वादरत्नाकरावतारिकामां कडं छे. जे " नित्यानित्याद्यनंतस्वभावभेदतः प्रतिधर्मे भिन्नाभिन्ना सप्तभंगी एवमनंताः सप्तभंग्यो भवंति इति॥" तथा च श्रीजिनवल्लभसूरिवाक्यं ।। बहुविह नयभंग, वत्युणिचं अणिचं ॥ सदसदनमिलाप्पा, लाप्पमेगं अगं ॥१॥ इति ॥ ए स्वभाव महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी स्वकृतद्रव्यगुणपर्यायना रासमध्ये समा छे, तिहांयी जोई लेवा ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥ धर्म प्रागभावता सकल गुण शुद्धता, भोग्यता कर्तृता रमण परिणामता ॥ शुद्ध स्वप्रदेशता तत्त्वचैतन्यता, व्याप्य व्यापक तथा ग्राह्य ग्राहकता ॥५॥
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