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“साधुनी पेंच भावना.
हारले अने एकज वार पाणी पीए अने वनचारी पेठे अदीनमुनि एकलो विचरे ॥ ९॥
एह दोष पर ग्रहणथीरे पर संगे गुण हाण । पर धन ग्राही चोर ते रे, एकपणो सुखछाण रे ॥ प्राणी० ॥१०॥
अर्थः--जे जे दोषो छे ते पुद्गल पर्याय ग्रहणता, व्यापकता, रक्षकता, कर्ता, भोक्ता आदिपणाथी उपज्या छे पणपर पर्यायनी ग्राहकता व्यापकता रक्षकता आदि छोडी शुद्धात्म तत्वतुं एकपणुं ग्रहे तो ते अनंत सुखनी खाण छे पण पर संगे तो गुणोनी हानि थाय छे माटे परसंग तजी एक शुद्धात्म भावमा मग्नपणे रहेg तेज एकलपणुं स्वतंत्र सुख खाण छे. जे पर वस्तु पर धन ग्रहे ते चोर जाणवो, पण पोतानी वस्तु भोगवे ते निर्भयपणे सहजे सुखमां वर्ते तेम आत्मा पर परिणति ग्रहणता तजी ज्ञानादिक निज परिणतिमां ग्राहकता व्यापकता रक्षकता कर्ता भोक्ता आदिपणुं आदरे तोज शाश्वत समाधिमां मग्न रहे ॥ १० ॥
पर संजोगथी बंध छरे, पर वियोगथी मोक्ष। तेणे तजी पर मेलावडोरे, एकपणो निज पोषरे ॥ प्राणी० ॥ ११ ॥ अर्थः-पर संजोगे बंध छे अने पर छोड्यां मुक्ति
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