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श्री सिद्धाचल स्तुति.
मोह पंकहर नीर सिद्धांत अबांध, देवचंद्र आणा सहित नय भंग अगाधै; ए श्रुतज्ञान सोहामणो सकल मोक्ष सुखकंद, भगतै सेवो भविकजन पामो परमानंद ॥ ६ ॥
॥ श्री सिद्धाचल स्तुति ॥
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विमलाचलमंडण जीनवर आदि जीणंद, निर्मय नीरमोही केवळ ज्ञान दिगद जे पुरख नवाणुं वार घरी आणंद, शेत्रुज गिरिशीखरे समवसर्या सुखकंद ॥ १ ॥ इण चउवीसमां रुखभादिक जिनराय,
वली काल अतीते अनंत चउवीसी थाय; ते सविइणगिरिवर आवी फरसी जाय, इम भावी काले आवसे सवि मुनिराय ॥ २ ॥ श्री रुषभ नागणधर पुंडरिक गुणवंत, द्वादश अंगरचना कीधी जेण महंत सवि आगम मांहे शेकुंज महिम महंत, भाविजिन गणधर सेवो करी थिर चित्त. ॥ ३ ॥ चक्केसरि गोमुह कपर्दि पमुह सुरसार,
जसु सेवा कारण थापि इंद्र उदार; देवचंद्र गणिभावे भविजनने आधार, सवी तिरथ मांहे सिद्धाचल शीरदार ॥ ४ ॥
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