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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीदेवचंद्रजीकृत विंशति विहरमानजिन स्तवनं. ७८९ भव्य सहाय रे || द० ।। देवचंद्र पद नीपजे रे, जिनपदकज सुपसाय रे ॥ ६० ॥ १० ॥ श्री० ॥ इति श्री युगमंधरजिन स्तवनं ॥ ॥ अथ तृतीय श्रीबाहुजिन स्तवनं ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || संभवजिन अवधारीयें || ए देशी || बाहुजिणेद दयामयी, वर्त्तमान भगवान || प्रभुजी || महाविदेहें विचरता, केवल ज्ञान निधान ॥ प्र० ॥ १ ॥ बा० ॥ द्रव्यथकी छकायने, न हणे जेह लगार || प्र० || भावदया परिणामनो, एहीज छे व्यवहार || प्र० ॥ २ ॥ बा० ॥ रूप अनुत्तर देवथी, अनंत गुणुअभिराम ॥ प्र० ॥ जोतां पण जगजंतुनें, न वधे विषय विराम ॥ प्र० ॥ ॥ ३ ॥ बा० कर्मउदय जिनराजनो, भविजन धर्मसहाय ॥ प्र० || नामादिक संभारतां, मिथ्यादोष विलाय ॥ प्र० || ४ || बा० ॥ आतमगुण अविराधना, भावदया भंडार || प्र० । क्षायिक गुण पर्याय में, नवि परधर्मप्रचार ॥ प्र० ॥ ५ ॥ बा० || गुणगुण परिणति परिणमे, बाधकभाव विहीन ॥ प्र० ॥ द्रव्य असंगी अन्यनो, शुद्ध अहिंसक पीन ॥ प्र० ।। ६ ।। बा० ॥ क्षेत्र सर्वप्रदेशमें, नहीं परभाव प्रसंग ॥ प्र० ॥ अतनु अयोगी भावथी, अवगाहना अभंग ॥ प्र० || ७ || बा० ॥ उत्पाद व्यय ध्रुवपणे, सहेजें परिणति थाय ॥ प्र० || छेदन योजनता नहीं, वस्तुस्वभाव समाय ॥ प्र० ॥ ८ || बा० ॥ गुण पर्याय अनंततः, कारक परिणति तेम ॥ प्र० ॥ निज निज परिणति परिणमे भाव अहिंसक एम || प्र० ।। ९ ।। बा० ॥ एम अहिंसकतामयी, दीठो तुं जिनराज ॥ प० ॥ रक्षक निज परजीवनो, तारण तरण जिहाज || प्र० २४४७ 3 For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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