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दे० चो० वा०
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व्यवहार, ४ ऋजुसूत्र. ए चार नयने द्रव्यार्थिकपणे द्रव्यनिक्षेपे मान्या छे, अने शब्दादिक ऋण नयने पर्यायार्थिकपणे भावनिक्षेप मान्या छे, तथा ऋजुमूत्रादिक चार नयने भावपणे कद्या छे, तेनो आशय कहे छे जे वस्तुनी अवस्था त्रण छे, १ प्रवृत्ति, २ संकल्प, ३ परिणति, ए त्रण भेद छे. तेमां जे योगव्यापार संकल्प, ते चेतनाना योग सहित मनना विकल्प, तेने श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण प्रवृत्तिधर्म कहे छे, तथा संकपधर्मने उदेक मिश्रपणा माटे द्रव्य निक्षेपें कहे छे, मात्र एक परिणति धर्मने भावनिक्षेपो को छे.
अने सिद्धसेनदिवाकरें विकल्प ते चेतना माटे भावनय गवेष्यो छे, अने प्रवृत्तिंनी सीम, व्यवहारनय छे, अने संकल्प ते ऋजुमुत्रनय छे, तथा एक वचनपर्यायरूप परिणति ते शब्दनय छे, अने सकल वचन पर्यायरूप परिणति ते समभिरूढनय छे, तथा वचन पर्याय अर्थ पर्याय रूप संपूर्ण ते एवंभूत नय छे, माटे ए शब्दादिक ऋण ते विशुक्रनय छे, भावधर्ममध्ये मुख्यभावने उत्तर उत्तर सूक्ष्मताना ग्राहक छे, ए रीतें नयनो अधिकार संक्षेपें कह्यो हवे ए साते नये करी अपवाद भावसेवनाना सात भेद कहे छे.
१ श्री अरिहंतरूप स्वजाति अन्यद्रव्य तेहना स्वरूपने चितववे जे चेतनानो अंश प्रभुना गुणने अनुयायी संकल्प पहेला केवारे न थयो हतो, ते संकल्पविषयादिकयी निवारीने प्रभुगुणे जोड्यो, ए निमित्तावलंबीपणा माटे अपवाद अंतरंग परिणाम ते भावसेवना संकल्परूप एक गमे माटे नैगमनये अपवाद भावसेवना जाणवी. आत्मसिद्धि नीपजाववानुं कारण छे.
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