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साधुपद सझाय.
संगथी बंधाणो जे शरीर तेहनो खानपानादि बाह्य शुश्रूषा रही छे एतळें शरीर संबंधी परसंगीपणो रह्यो छे. नही तत्र कर्त्तावंत तसु ते जे कर्मबंधणा शरीरनी शुश्रूषादिके करनें तिणरो कर्त्तापणो तिणारे नहीं रह्यो छे, कर्मरो कर्त्तापणो बाकी न रह्यो ॥ ९ ॥
साधनभाव प्रथमथी नीपजे रे, तेहीज थाये सिद्ध;
द्रव्यत साधन विघन निवारणा रे, नैमित्तिक सुप्रसिद्ध ॥ सा० ॥ १० ॥
कर्मरो कर्त्ताविंतपणो नही तेथीज साधकभाव आत्मिक गुण साधक स्वभाव आत्मारा आत्मिक गुणज्ञान दर्शनादि साधक साधन करणो सिद्ध करणो तिणरोभाव प्रथमथीपहिला हुंती एटले ए हवे आत्मा थयें छते नींपजे थाय तेहिज आत्मा थाय सिद्ध सिद्धपणे थाय पामे तो ते हवे ये आत्मारे द्रव्यत साधन द्रव्यत्व साधनपणो बाह्य साधनपणो चारित्रादि तेहना द्रव्यत्व साधनना जे कोई विधन ते विधनोनो निवारणारे निवारण करणो दूर करणो नैमित्तिक ए तो निमित्तकारण छे; साधारण असाधारणमाथी एकही नथी जीम कुंभकाररे दंड चक्रचीवरादि निमित्त कारण घटरूप कार्य सिद्धि करतां थकां छे तिम द्रव्यत साधन द्रव्य साधूपणारी एहवो ययो आत्मा तेहनें पांचेई जे प्राणाति पाताश्रवरो निवारण द्रव्य साधुपणारे विषे प्राणातिपातादिक नो विधन न पडे प्राणातिपात मृषावादादिक लागे तद्रप
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