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साधुपद सझाय.
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तद्रूपे संगी हुवे तिवारे साधे आत्म समाधि ॥ समाधिश्चित्त वृत्तिरोध: मुनिराजनी चित्तनी चित्त-मन तेहनी जो वृत्ति प्रवर्तन तिण प्रवर्तनें आत्मिक स्वरूपमयी चिंतवन मनमें साधन करे ॥ ८ ॥
मायक्ष आर्जवनी पूर्णता रे, सवि गुण ऋजुतावंत; पूर्व प्रयोगें परसंगीपणो रे, नही तसू कर्त्ताविंत ॥ सा० ॥ ९ ॥
हिवे आठमी गाथारे अंत पदमां साधे आत्म समाधि ए पद धर्यो, आत्म समाधि साधे ईश्यो कहां छतां क्षपकी तो निश्चय ठहियों क्षपकी ईग्यारमें गुण ठाणानें फरसें नही आगे नवमी गाथारे पहिला पदमें मायक्षये आर्जवनी पूर्णतारे इसोपद ग्रंथ्यो जो पदनो संबंध बारमें गुणठाणे विना मिले नही पण कर्ता थ्यो तेथी मने पदरो अर्थ करणो वे लिखुं मायानो क्षय थया छतां आर्जवनी पूर्णतारे प्रथम आर्जव - भावरी संपूर्णता नहंती हिवे बारमें गुणठाणे प्रवर्त्त्या छतां सरलतानी पूर्णता हुइ एतले आत्माविषे संपूर्ण आर्यवता आवी रुजुतारो रमण आत्मसमाधिपूर्वे होयचूको पिण सिझायकर्ताए आर्यवपद गुथ्यो तेथी पुनरुक्ति अर्थ लिख्यो. सब गुण जो गुण साधुपणेरा खंतीमदव अज्जवादि ए दशविध यतिधर्म ते सर्व गुण दशेही रुजुतावंत थया पूर्व प्रयोगें ए मुनिराजनें जीवें पूर्व भवें बांध्यां जिके शुभाशुभ मिथ्यात्वादि हेतु करने उपाय जीके कर्म तेथी परसंगीपणोरे पर जे जडादि तेहना
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