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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५४ . साधुपद सझायं. जिम नृप नीति विरक्त जिम राजा राजनीतिमां प्रवर्ततो थको सर्व वातें साता पायें तेहिज राजा नीतिने विस्व छोड्यां थकां दुःख पामे इत्यर्थः ॥ ७ ॥ ते माटें मुनिऋजुतायें रमे रे, मे अनादि उपाधि, समता रंगी संगी तत्त्वना रे, साधे आत्म समाधि ॥ सा० ॥ माटे ति कारणे मुनिराज परभाव छोड़ने रुजुता सरलता आत्मिक स्वभाव संबंधित जीणें करनें आत्म स्वभावमें रमे रमण करे दिनरात फिरी तेहिज मुनिराज अनादि कालनो मिथ्यात्वादि उपाधिलक्षणमाह || साध्य व्यापकत्वे सति साधना व्यापकत्वमुपाधिः ॥ साधवा योग्य वस्तु तिरे विषे तो सर्वथा प्रकाररूप स्वरूपता व्यापी रही छे. व्याप रह्यां थकां तें साधन जे कारण तेने विषे अव्यापकत्वं व्यापन रही छे एटले स्वरूप कार्य साववावालो ते साधन ठहिर्यो तेहने विषे रुजुतापणो व्यापीने रह्यो तेहिज उपाधि, ईहां साधवा योग्य आत्मिक स्वरूप सरलता तेहने विषे व्याप रही छे साधन मुनिराज तिणरे विषे अनादि कालीन मिथ्यात्वादिक उपाधि तिणसु रुजुता नावे तिण कारणें मुनिराज रुजुताने ग्रहण कीयां स्वरूप प्राप्ति हुवे ते कारणे उपाधि वमें दूर करे तिवारे साधुरे विषे स्वरूप ग्राहक शक्ति उपजे सुमता रंगी शुभमति स्वरूप संबंधनी भली जे मति तिणसुं मुनिराज रक्त दुवे. अहोनिशी सुमतिमयी प्रवर्ते. संगी तत्त्वनारे शुद्धात्मतत्व तेहनो अहोनिशि चिंतवन १६ For Private And Personal Use Only ८ ॥
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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