________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
साधुपद सझाय.
वक्र चालथी आतम दुःख लहे रे, नृप नीति विरत ॥ सा० ॥ ७ ॥
जिम
१०५३
For Private And Personal Use Only
ओ जीव अशुद्ध क्षायिकीपणामाटे सत्ता आत्म सत्ता ते आत्म सत्ताने रोध-रोकने भ्रमण गति चारमेंरे चार गति चोरासी लाख जीवयोनीरो प्रवर्तणो - भमणो पर नाम जडादिकनी आधीनवृत्ति छे एटले जीव जडाधीन वृत्तिए करने चार गतिमा परि समस्तपणे भ्रमण करे. तब दांतमाह जिम कृष्ण वासुदेव अशुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व पामके कालां तरे मरण पाय तीजी नरकमें सात सागरोपमरी स्थिति में उपज्यो उपज्यां पछे तीजी नरकरो आउखो संपूर्ण भोगवनें मनुष्यभव करनें पांच में देवलोकमें दस सागरोपमरी स्थिति में उपज्यां, तिहांथी चविकर बारमें अममजी ईसेनामे आवती चोवीसी तीर्थकर हुसी. पदुक्तं श्री संघदासगणि कृति वसुदेव हिंडौ तथाहि । कहा तइ आए पुढवीए उवहित्तार हवे भारहेवासे सय दुवारे नयरे जियसुत्तस्मरणो पुत्तत्ताण्डवजिऊणपत्त मंडलिय भावो पवज्जं पडिवझिय तित्थयरणाम कम्मं समुज्जणिता बंभलोए कप्पे दस सागरोव माउण तउचुओ बारसमो अममो नामा अरहा भविस्सई || ते आत्मारो विचारी जोता तो मूळस्थानक सिद्धहीज छे, परंते आत्मा जडादिकने आधीन वृत्तियें करने परिभ्रमण करे ते आत्मानी वक्रचाल ते दुःख पामे किम स्वचालछोड पर चालसे चालवा लागो तारे पराई चालसुं आत्मा दुख पामे पोतानी चालें प्रवर्त्ततो थको सिद्धमुखनोहीज भोक्ता छे, एतो आत्मा परचाले दुःख पाम्यो तिहां द्रष्टांत
१५