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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री बाहुजिन स्तवन. १०६५ संसारी जीव परानुयायी क्षयोपशमी उपयोग वीर्यने प्रवर्तने स्वगुण अनंतताने आवरण करतो हतो. ते आत्मगुण हिंसा हती. तथा पोताना गुण, पुद्गल लेवे भोगवे प्रवर्तावतां आत्मगुण विराधना थती हती, ते हे श्री बाहु स्वामी हिवे तुमे तुम्हारा कारण गुण, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, दान, लाभ, भोग, उपभोग, कर्तापणो, भोक्तापणो, ज्ञायकपणो, ग्राहकपणो, व्यापकपणो, रक्षकपणो प्रमुख सर्वे स्वरूपानुयायी साधकत्व स्वरूप, कर्त्ता स्वरूपः ज्ञाता स्वरूप, ग्राहक स्वरूप, भोक्ता स्वरूप, रक्षक स्वरूपाश्रयी स्वरूप तन्मयतादिपणो थयें, सर्वआत्मगुणना अविराधक थया ते माटे स्वरूपना सर्वथा निरावरणपणे रहिवो, जे आत्माना गुणने विराधवा नहिं. ए भाव दया छे. तेना तुम्हे हे प्रमुजी ! हे परमेश्वर ! परमात्मा तुम्हे भंडार छो. इतले स्वस्वरूपने निर्मळपणे राखी रह्या छो. एहज भाव दया छे. तेना भंडार छोजी. तेनो कारण कहे छे. जे क्षायिक निरावरण जे गुण केवळ ज्ञानादिक पर्याय सकल वेत्तृत्वादिक तेहमें हिवें, परधर्म जे पुद्गल रागादि जे परधर्म रागादिक तेहनो प्रचार कहतां प्रवेश नहि कहतो नयी, जे क्षयोपशमी गुण ते कदाचित् शक्तिन्यूनता माटे परानुयायी थाये. ते साधनचक्रे साचव्याज रहे, परं क्षायिक भावी जे गुण ते जे स्वशक्तिनी संपूर्णताये, स्वकार्य करे, परंपरानुयायी थायेज नहि. एहज परम स्वरूप अविराधकता सादि अनंत भागे निपती, ते परम अहिंसा निपनी छे, ए चारित्र गुणनी परणति छे. ते कर्तृत्वपणाने बळे प्रवते छे. ते माटेकरी नीपनी. हिवेपिण समये समये करेज छे. ते माटे एक 134 For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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