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द्वितीय श्रीअजितजिन स्तवनम्.
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अर्थः--हवे जे कार्यन जे कारण छे, ते कारण तथा सामग्री ए बेनो संयोग मलतां कार्य नीपजे, जेम घटरूप कार्य, तेहने दंड, चक्र, चीवर, निमित्त कारण छे, तथा मृत्तिका उपादान कारण छे, अने कुंभकार कर्त्ता छे, जे कार्य अभेद तेहनो तेहवो, कर्ता पण अभेद, जे कार्य कर्तायी मिन्न, तेनो कर्ता पण भिन्न; एटले घटकार्य ते परवस्तु छे, तेहनो कर्ता कुंभकार पण भिन्न छे, अने सिद्धतारूप कार्य आत्मायी अभिन्न छे, तो तेहनो कर्ता आत्मा पण अमिन्न छे.
हवे आत्मा कर्त्ताने सकलस्वधर्मव्यक्त रूप जे सिद्धता, ते कार्य, तेहने देव श्री अरिहंत देवाधि देव तथा गुरुनिZथादिक ते निमित्त कारण मल्यां, अने सामग्री कर्म भूमि साधर्मिकादिक संयोग मल्यां मोक्षरूप कार्य नीपजे, माटे माहरु मोक्षरूप कार्य तेना निमित्तकारण श्री वीतराग तुमें छो, तेथी तमने आश्रयतां मोक्षरूप कार्य नीपजे, पण कारण सर्व मल्यां, अने कर्त्ता जे आत्मा ते जो तेम प्रयोगसाधननो व्यापार न करे, तो कार्य निपजे नहीं, केमके अरिहंतादिकना निमित्त पामीने पण अनेक जीव आत्मा साध्यावलंबी तथा साधनपरिणति थया विना मोक्षकार्य निपजाव्या विना हजी संसारमां भमता दीसे छे, तेमाटे कर्त्ता जे आत्मा ते जो मोक्षसाधनरूप प्रयोग कहेतां व्यापार करे, तो सिद्धतारूप कार्य नीपजे ॥ इति ॥ द्वितीयगाथार्थः ॥ २ ॥ कार्य सिद्धि कर्ता वसु रे, लहि कारण संयोग। निजपदकारक प्रभु मल्या रे, होए निमित्तह भोग ॥
अ०॥३॥
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