SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्थ श्रीअमिनंदनजिन स्तवनं. -- सर्व परभाव त्याग करीने प्रभुने भजो. ते प्रभु केहेवा छे ? जे आत्मालंबी केहेतां सर्वपणे पोतानी आत्माने अवलंब्या छे, एटले पोताना आत्माने विषेज तन्मय थया छे, तथा गुणलयी कहेतां गुणने विषे लय कहेतां विश्राम जेहनो के वली श्रीवीतरागतत्व केहेवू छे ? सर्वमोक्षने निपजावनारा साधक एहवा जे सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्व विरति, श्रेणिना वासी, ध्यानारूढ जीवो तेने ध्येय छे, एटले सर्व आत्माने श्री सिझ परमात्मा ध्येय छे. ध्यान बे प्रकारनुं छे, एक सालंबन, बीजं निरालंबन. तेमां जे अरिहंतसिजनुं तत्त्व स्वरूप अवलंबीने ध्यान कर, ते सालंबन ध्यान छे तेणे श्रीअमिनंदन प्रभु सर्वने ध्यायवा योग्य छे ॥ ६॥ इति का गाथार्थः ॥ जिम जिनवर आलंबनें, वधे सधे एकतान हो मित्त॥ तेमतेम आत्मालंबनी, ग्रहे स्वरूप निदान हो मित्त॥ क्यु०॥७॥ ___ अर्थः-इम करतां जेम जेम साधक जे आपणो जीव, ते श्रीजिनवरदेवनी तत्त्वप्रभुताने आलंबने वधे, केहेतां सर्वक्षयोपशमी चेतना वीर्य रमण अरिहंतनी शुभतामां तन्मयपणे थाय, एकतान केहेतां एकत्वपणुं सधे निपजे, एटले सकलपरभावथी टलीने एक निष्पन्न परमात्माने स्वरूपें चेतना व्याप्त थाय, तेम तेम ए साधक जीव, पोतानो आत्मा कार्यरूप तेहेनें स्वरूपनें आलंबे, उपादानस्मरण चिंतन ध्यानरूप थाय, तेवारे एक स्वरूपनुं निदान कहेतां मूलकारण ग्रहे, अंगीकार करे ॥ इति ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy