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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यात्मगीता. ४७३ अर्थ -- एहवी के० जे पूर्वे वखाणी शुद्ध निर्मल सिद्धता के० सिद्ध परमात्मानी संपदा छे, तेहवी सिद्ध संपदा प्रगट करवानी जे मुनिने इहा के० वांछा छे, ते मुनि कहेवा छे? इंद्रिय के० पांच इंद्रियना देवीस विषय सुख पौगलिक तेहनी वांछा रहित व छे, वली भुनि केवा छे पौगलिक के० स्व स्वरूपथी मिन्न के० जुदा एहवा शुभाशुभविभाव दशारूप जे पौगलिकभाव तेहना संगयी रहित न्यारा जे मुनि प्रवत्तें छे, ते असंगी ते मुनिराज निर्मळ बुद्धिना धणी अने जे साध्य एक अने साधन अनेक एवी रीते सत्ता गतना धर्मने साधे ते मुनि, परमार्थ साधवाना रंगी छे ।। ४३ ॥ स्याद्वाद आतम सत्ता रुचि समकित तेह | आतम धर्मनो भासन निर्मळ ज्ञानी जेह ॥ आतम रमणी चरणी ध्यानी आतम लीन । आतम धर्म रम्यो तेणे भव्य सदा सुख पौन ॥ ४४ अर्थः-- स्याद्वाद के नित्य अनित्यादि आठ पक्षे करी अनेकांतनयरूप मार्ग ते स्याद्वादे करी आत्मसत्ता रुचिने ओलखीने प्रकट करवानी रुचि प्रवृत्ति ते मुनि, शुद्ध भासनरूप समकित भाव सहित जाणवा. आतमधर्मे के० आत्मा शुद्ध निश्चय नयेकरी जोतां तो पोतानी आत्मसत्ताने विषे ज्ञानादि अनंत गुण रूप धर्म रह्यो छे, तेहनो भासन प्रतीत प्रगटी तिवारे निर्मल ज्ञानी थयो निर्मल जाणपणुं थयुं त्यां आत्म के० ते मुनि सदाकाल स्वआत्म स्वरूप रमण करे तेहने शुद्ध चरित्रनो उपयोग वर्थ्यो, तिवारे आत्मस्वरूपना ध्यानने लीन 60 ३५ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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