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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir PARE AAAAAAA - दे० चौ. बा. थाय. तेंवारे स्ववीर्यबलें पारिणामिक कर्ता थइने, एटले स्वपरि गॉमिकताना कर्ता थइने परम केतां उत्कृष्ट अक्रियपणारूप अमृततुं पान तमें कर्यु एटले विभाव कर्तृता तथा साधकरूप कर्तृता तजीने अकंप, अचल, वीर्यपणे हे परमेश्वर ! तमें अक्रिय धयां ॥ ४ ॥ इति चतुर्थ गाथार्थः ॥ शुद्धता प्रभु तणी आत्मभावें रमे, परम परमात्मता तास थाए । मिश्रभावें अछे त्रिगुणनी भिन्नता, त्रिगुण एकत्व तुज चरण आए ॥स० ५॥ गुण जे रखनकेतां तारे ठाणे एकत्वाचारित्र स्थिरता अर्थः-एहवी शुद्धता, तत्त्वता, निरावरणता, तथा अनंतगुणभांगीपणानी जे प्रभुता, ते आत्मभावें केतां पोताने आत्मपणे रमे, एटले प्रभुनी प्रभुता तेनो रंगी जे जीव, तेहने परम उत्कृष्ट शुद्ध परमात्मापणुं थाय, मिश्रभाव जे क्षयोपशम भावें विगुण जे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तेहनी भिन्नता केतां मेदरत्नत्रयी छे, साधक छे, परंतु सविकल्प छे, ते त्रिगुण जे रत्नत्रयी, तेह- जे एकत्व केतां एकपणुं अभेदपर्ण ते थाय, तुज केतां ताहरे चरण यथाख्यात क्षायिक चारित्र आवे, प्रगटे, एटले क्षीणमोहगुणठाणे एकत्व वितर्क अप्रविचार शुक्लध्यान उपने, जे दर्शन निर्धाररूप, तथा चारित्र स्थिरतारूप, ए बे धारा, ज्ञानधारायी अभेद थई, एटले प्रथम मिध्यात्वकालें तो ज्ञान विपर्यास रूपे हतुं ते सम्यक्दर्शन प्रगटे यथार्थज्ञान थयु, तेवारे ज्ञानस्वरूप रमणी थयो, पछी ते ज्ञान स्वरूपरमणी स्थिरताभावने भजे, एम ध्यानारूढ थयो, विकल्प २२८ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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