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त्रयोविंश श्री पार्श्वनाथ जिन स्तवनं.
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तजतो, पोताना आत्माने तत्वपरिणतिमध्ये त्मयता पमाड़तो पछी ज्ञानमुंज रमण, ज्ञाननोज निर्धार, एटले पर्यायभेदें ते मूलगुणे एकत्व पामे, ए अभेदरत्नत्रयीनु स्वरूप, ध्यानिगम्य छे, परंतु मूलनये आत्मा ज्ञान, दर्शन, ए बे गुणे सहित छ, एहवी आम्नाय छे, शेष निर्धारथिरताएं सर्व चेतना गुणनी प्रवृत्ति छ, तेमाटे ए ज्ञानमांहेज स्थिरत्वपरिणति ते अभेदता कहेवी, प्रथम क्षयोपशमी चलवीर्यताएं चेतनापर्यायनी प्रवृत्ति असंख्यसमयी हती, ते भासनप्रवृत्ति पछी को कारण कार्यमा थिरतापरिणतिएं हती, ते क्षीणमोहकाले रोधकने क्षये समकाल असंख्यसमयी प्रवृत्ति थइ, ते केवलज्ञान थये निरावरणतायें एकसमयी थइ, ए रीतें अमेद रत्नत्रयी थाय छे. ए श्री भाव्यथी समजवी ॥५॥
उपशम रस भरी सर्व जन शंकरी, मूर्ति जिनराजनी आज भेटो ॥ कारणे कार्यनिष्पत्ति श्रद्धान छे, तेणें भवभ्रमणनी भीड मेटी ॥स०६॥
अर्थः--उपशम रस जे कषायनो अभाव, तेहयी भरी. अने सर्वलोकने शंकरी केतां कल्याणनी करनारी एहवी मन भुनी धापना केतां मूर्ति तेहनी शांत अचल अस्पृहमुझ, ते आज़ भेटी केतां नमस्काररूपें सेवी. हवे कारण कार्य निपने, एहवी श्रद्धा प्रतीत छे, तेणें मोक्षनुं निमित्त कारणा, श्री जिनमुद्रानो योग ध्यो, अने उपादान कारम आत्मोपयोग प्रमुख अध्यवसाय जिनगुणभासन रागहः परिणम्या, एहबा
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