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दे० चो० बा०
कारणने मलवे, जाणुं छं, जे कारणता ते कार्यनो हेतु छे, माटे कारण मले कार्यनी निष्पत्ति यशे, एहवो आगमिक भव्यताद्योत उपयोग थयो, तेहथी जाण्युं जे ए परमपुरुषोत्तम देव श्री वीतरागनी इष्टता जो उपनी, तो कोइ दिवसें ए आत्मा गुणी थनार छे, ए अनुमाने जाण्यो जे कारण मल्यु तो कार्य निपजशे अने भवभ्रमण पण टलशे, ए हर्षनुं वचन छे, भवभ्रमणनी मीड मटी, ए कारणे कार्योपचारी वचन छ, एम भावना करवी. जो प्रभुनी प्रभुता इष्ट लागे छे, तो आत्मा सिद्धता वरशे ॥ ६ ।। इति षष्ठगाथार्थः ।।
नयर खंभायतें पार्श्वप्रभु दर्शनें, विकसते हर्ष उत्साह वाध्यो । हेतु एकत्वता रमण परिणामथी, सिद्धि साधकपणो आज साध्यो ॥स० ७॥
अर्थः-एहवा अध्यवसाय श्रीखंभायत तीर्थे श्रीसुखसागर पार्श्वजिननुं वंदन करतां, कोइक प्रभुनी प्रभुता ऊपर अपूर्व राग उपनो ते हर्षे ए वचन भांख्युं छे, तेमाटे खंभायतनुं नाम आण्युं छे, जे ए ए खंभायत नगरमां विकसित हर्षने विकस्वर थवे उत्साह, वाध्यो केतां वध्यो, हेतु जे कारण श्री अरिहंत देव, तेहथी एकत्वपणे अत्यंत रागें रम्यो जे परिणाम, एटले प्रभुथी अतिरागी परिणाम थवाथी, सिद्धि जे मोक्ष तेहर्नु साधकपणुं ए आत्मामांहे छे, एह अनुमान सध्यु एटले प्रभुरागें अनुष्ठान रहित आशंसारहित परिणम्युं, तो जाण्यु जे ए जीवमोक्ष निपजाववानी योग्यतावंत छे, माटे एहवं अनुमान कीg
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