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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org यमकापा. ५११ ताहीको विनाश दोनुं पुद्गलमे लसेहे; अनादिता कहे याको प्रसंग अनंत होत जेसे ज्ञान चेतनको योग सदा वसेहे, एते दोषवंत वानि तुम कहि कहा जानि गुरुजी हमारो चित्त संसयमांही धसे ।। २६ ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ गुरु उत्तर कथन ॥ ॥ दोहा ॥ मिले हेतु विनसे जबे, वस्तु अनादि ज्युं सांत, कर्म भव्य पुंनसे, कनक मैल दृष्टांत. ॥। २७ ॥ आतम करे निजभावको, न करे परपरनाम, स्वस्वभाव किरीया करे, सो पावे शिव ठाम. ॥ २८ ॥ असद्भूत नीचे करे, भावकर्म ए जीव; द्रव्यकर्मको फुनिग्रहे, नयव्यवहार सदीव ॥ २९ ॥ || शिष्य प्रश्न ॥ ॥ सर्वेया इकतीसा ॥ व्यापक अरु व्यापकको भाव इष्ट को शिष्ट करता करमकौ या नित्यहीकी रितहे, ताहीके अभाव कैसे द्रव्य कर्मपुद्गल करेगो चेतनराम तासौ जो व्यतीत हे; व्याप अरू व्यापकता तनमय गुणसंग परभावसंग ताको कहीवो अनीत हे, तदमे अभाव होत करमको करतार अनादि अनंत जीव कहीबेकी मीति हे ॥ ३० ॥ ॥ गुरु उत्तर कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥ कर्मके निमित्त कहे आतमाके परिणाम आतम परिणामको निमित्त पूर्व कर्म है, याते दुहुभावद्दीको हेतु हेतुमंत भाव ३१ For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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