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पष्ट श्रीपद्मप्रभजिन स्तवनं.
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॥अथ षष्ठ श्री पदाप्रमजिन स्तवनं ॥ ॥ हुं तुज आगल शी काटुं के रियाल ॥ए देशी॥
श्रोपद्मप्रभ जिन गुणनिधि रे लाल, जगतारक जगदोश रे॥ वालेसर ॥ जिन उपगारथकी लहे रे लाल, भविजन सिद्धि जगीश रे ॥ वा० १ ॥ तुज दरिसण मुज वाल्हो रे लाल, दरिसण शुद्ध पवित्त रे ॥ चा०॥ दरिसण शब्द नये करे रे लाल, संग्रह एवंभूत रे ॥वा०॥तु० २॥ए आंकणी॥
अर्थः--हवे श्री पद्मप्रभजीना निमित्त कारणनी कारणता यथार्थरूपें स्तवे छे. श्रीपद्मप्रभ गुणना निधान छे, जगतारक कहेतां जगत्ने विषे मोक्षार्थी जीव तेहना तारक छे, गुणाधिक छे, तेमाटे जगतना ईश कहेतां स्वामी वडेरा छे, जिन उपगारथी लहे कहेतां पामे, भव्यजीव सिद्धि कहेतां मोक्षरूप जगीश कहेतां संपदा पामे, हे प्रभु ! ताहरा दर्शनमां कारण, रूप ताहरी मुद्रानुं जे देखg, ते उत्कृष्ट कारणरूपें ताहारुं दर्शन कहेतां शासन, उपादान कारणपणे दर्शन केतां सम्यक्त्व ते मुजने वाल्हो केतां इष्ट छे, हे प्रभु ! ताहरूं दर्शन जे सम्यक्त्वतत्त्वरुचिरूप ते शुद्ध छे, पवित्र छ, जो आत्माने
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