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त्यप्रकाश
जेति तेति फल वीजें वीनू काजकी कहांनि है; दान दया तप जप दम उपसम भाव तजैगे कठीन वात जेते जग प्रानी हे, रहेगे प्रमादरत निरबंध अंध जेसे ज्ञान मत बंधके अबंध मति ठानी हे ।। १०४ ॥
॥ अथ गुरुउत्तर वचन ।।
॥ सवैया इकतीसा ।। जैसे विषवेद नर विषको विकार जाने करि ताको उपचार विष अपहरै है, सोइ आप विष भखे तोमि कछु नाहि लखे मूरछा न पावे सो तौ लोक विष हरै है; जैसे नाग मंत्रधर नागसे गहावे अंग आपनिःसंग रहे नागहीसो लरेहै, तैसे ज्ञानपूर्व कर्म जोग भोग भोगवे पै म्ह अलिपत ताने बंध नाही वरे है॥ १०५ ॥
॥ पुनः गुरुवचन ॥
॥ सवैया इकतीसा ।। जैसे कही दावानल जलै अतिही चपल झाले पुर वन जामै गिरिकूट जलै है, तब कोउ मंत्रवादी मंत्रकी सकतीसेती,
अग्निशक्ति बंध राखे तब ताप टले है। सोतो मंत्रधर वर तामे कूदकुंदपरे फीरेधीरे इतउत तोभी नाही बलै है, तैसे ज्ञाता बोधशक्ति बंधशक्ति रोधकिनी भोगवे भोग तोभी कर्ममै न लिहें है. ॥ १०६॥
॥शिष्य प्रश्न ॥
॥ सवैया इनीसा । शिष्य कहे स्वामी तुम कही एति वात साचि तोमि हम
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