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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५६० दे० चो० बा० अर्थ:-- हवे जे निमित्त पामीने उपादान समरे, पलटण पामे, ते रीत कहे छे, अथवा प्रभु परमात्मा तेहनुं स्वरूप कहे छे. आत्मा त्रण प्रकारना छे, एक बहिरात्मा, बीजो अंतरात्मा, बीजो परमात्मा. तिहां जे शरीरादिक औदायिक भावकर्मजनितने आत्मपणे गणे, ते बहिरात्मा कहियें, अने जे शरीरादिक औदयिकभावथी आत्मा असंख्यात प्रदेशी, चेतनालक्षणज्ञानादि अनंतगुण पर्याय सहित अरूपी भिन्न एटले आत्मा अरूपी, शरीर रूपी, आत्मा सहज अकृत्रिम, शरीर संयोगी कृत्रिम, तेमाटे कर्मयोगें शरीरादिमध्ये रह्यो, पण भिन्न छे, एहवो मेदज्ञानवंत, समकित गुणठाणाथी मांडी क्षीणमोह गुणाना चरम समय पर्यंत अंतरात्मा जाणवो, तथा ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनी, अंतराय, ए चार कर्म क्षय गयां, केवलज्ञानी ते सयोगी अने अयोगी केवली तथा अष्टकर्ममुक्त सिद्धात्मा, ते परमात्मा जाणवो, एटले श्री अजितनाथ अरिहंत एवंभूतनयें परमात्मा छे, प्रभु छे, सर्व सिद्ध वस्तुगतें पोताना गुणपर्यायरूप संपदाना प्रभु छे, कोई द्रव्य, अन्यद्रव्यनुं स्वामी होयज नहीं, ज्यां सुधी जे द्रव्यना चिंतनमांहे पण परद्रव्यनुं स्वामिपणं छे, त्यां सुधी ते द्रव्य शुद्ध नहीं, माटे श्री अजित अरिहंत पोताना स्वभावना प्रभु छे, अने उत्तम जीव पोताने कर्मवश पड्या मोहें मुज्या जाणी, पोताने रंक समान गणे, अने अमोही स्वाधीन या तेहने प्रभु कहे, अने अमोहीने अवलंब्यां पोतें स्वसंपदाना धणी थाय माटे जेहना कारणपणायी पोतानुं प्रभुत्वं पामीयें, तेहने प्रभु कहीयं, स्तवीयें, जगतमांहे पुगलना मंयोगें जे सुख कहेवाय छे, तेतो आरोपमात्र छे, एटले जातें सुख नयी " એ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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