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द्रव्यप्रकाश.
॥ अथमोहविलासकथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥
लो आरिजकुल गुरुको संजोग वलि पूरवके पुण्यबल एसो जोग लोहे, अध्यातमग्रंथसार सुणो कान धरी प्यार पीयो ताको रस निज तत्त्वशुद्ध ग्रह्येोहे; तौभी यह तैरो जीव चाहत विशेष दीव भोगकी ममत्वतासौ माचिराचि रह्योहे, जगको जीवनहार एतो सब मोहभार मोहकी मरोरमें जगत लहलह्योहे. ॥४॥ ॥ अथप्रथमद्वार ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
प्रथम धरमद्रव्य, दूसरो अधर्मद्रव्य, तीसरो आकाशद्रव्य, लोकालोकमानहे, चोथो कालद्रव्य एक पुद्गलद्रव्यरूपी निजनिजसत्तावंत अनंत अमानहे; पांचोह अचेतनजं चेतनासरूप लीये छो ज्ञानवान द्रव्य चेतन सुजानहे, स्यादवादभाव लीये तीनं अधिकार या ग्रंथको आरंभ कीनो ग्रंथज्ञान भानहे. ॥५॥ ॥ कलिघुताई ॥ ॥ सवैया इकतीसा ||
कोउ बाल मंदमति चित्तसो करे उकति नभके प्रदेश सब गनि देवो करसे, कोउ जन छीन तन पुरातन वयातीत वचन सो कहे एसो जुद्ध करो हरिसे; भूचर वामन सो सकति दिनु कहे एसो लंबीकर मूजा मेतो मेरुचूलापरसौ, तैसे में अल्पबुद्धि महावृद्ध ग्रंथ मड्यो पंडित हसेगे निज ज्ञानके गढ़रसौ. ॥ ६ ॥ || ग्रंथअधिकारीवर्णन || ॥ सवैया इकतीसा ॥
परम धरम जानि करम मरम भानि नरम सभाव लहि धाम सौ
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