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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५१८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रव्यप्रकाश. मांस अस्थि रुधिरादिको, करे दुगंछा पेखी; तन्मय तनको निज गने, यह अज्ञानता देखी. ॥५४॥ || सवैया तेवीसा | देहको नेह तजो तुम चातुर आतुर भाव सदाईन पांही, व्यंतरके पुरसी छिन भंगुर रूपकी सोभ सो बादर छांही; घणा (?) दिनके सबसि दुरगंधके दुषन गेह वदी इनमांही, या तनकी ममता न तजो तो ( लौ, ) आतमज्ञान जगे तुम नांही ॥ ५५ ॥ <<< wr ॥ दोहा ॥ देहादिकको भिन्न गणी, गहि आतम शीवकुल; परमें निज अभिमानता, यह भव भ्रमणा मूल. ॥ ५६ ॥ || निस्पृहताभाव कथन ॥ ॥ सवैया इकतीसा ॥ अधरम घाती शिव मारगको संवाती एसो रंच नाही पक्षपाती अध्यातम राव है, परम नरमवर भेदज्ञान भावधर हरि परदोष कर्म नासको उपाव हे; तन मन त्रिया धन योवनादि पर गिनें मोहद्रोहमै नसै न जीतवेको दाव हे, नरककी भीत नांहि सुरपद मीति नांहि भदरीति रित्यौ ऐसा निस्पृह भाव है ॥ ५७ ॥ For Private And Personal Use Only ||ETET || स्व स्वरूपगत दृष्टिको, नाहि शक्रपद चाहि; स्व स्वरूपगत दृष्टिको, लघुपद लहे उछाहि. ॥ ५८ ॥ परम ज्योति सुखस्वादरत, योगी जोग विरत; कुथित अन्न ज्युं राग विनुं, जा नहि विषय अनित्त ॥५९॥
SR No.008662
Book TitleShrimad Devchandra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagar
PublisherAdhyatma Gyan Prasarak Mandal
Publication Year
Total Pages670
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Worship
File Size9 MB
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