________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
द्रव्यप्रकाशः
आतम अनुभव सुखसो, भ्रष्ट भये दूरबुद्धिः विषयन रति चितमें करे, सुकर कादम लुद्ध. ॥ ६० ॥
॥ आतम स्वरूप वरणन ॥
॥सवैया तेवीसा ॥ मुख सुवृंद अफंद अमंद आनंदको कंद सदा सुख धारी, ऐसो अनोपम आतमज्ञान सुधाधर कुंडमै जीलै अपारी; अनादि
अज्ञानके भर्म लग्यो यह कर्म कलंको मैल पखारी, संत लहे निखानको थानक दर्शनज्ञान चरित्रसे भारी ॥ ६१ ॥
॥दोहा॥ स्व स्वरूप आलंब विजें, शिवपथ और नहीज; मुक्ति स्त्री वश करनको, सोहं ध्यान सुबीज. ॥ २ ॥ जेसे पंकजदल अमल, रहे कर्मसौ भिन्न, त्यौ आतम स्व सभावमय, कर्मखेदनिर्विन ॥ ६३ ॥
॥ इंद्रिसुखहेय कथन ॥
॥सवैया इकतीसा ॥ जग इंद्री सुख जेते ते ते सब दुखरूप कबहुं न समता. हे ममता अनंत हे, जेसे पंथी मरुदेश ग्रीषम समे प्रवेश मध्य दीन नीर विनु भोजन करंत हे; कामभोग रतिमति उचित न तोपे राम पामबाज जेसे दुख राजीमे महंत हे, पन्नग ज्युं दुख देय निहचे सरूप हेय गेय योग उपादेय मागमे अकंत हे ।। ६४ ।।
॥दोहा॥ उत्तम पद ते तुं पर्यो, सो विभाव अनुभावः . तोमी वाहि मेरमें, कहाकहो गुनराव. ॥ ६५ ।।.
३९
For Private And Personal Use Only