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वीरजिनवरनिर्वाण.
ढाल राग गाडि॥धन घन सुरनर पतितली॥ए देशी ॥
वीर विहारे विहारे विचरता करता जगकुं शाताजी,
चरण सोवन पंकज थापता जगवन्सल जगत्राताजी. ॥त्रुटक ॥
वाता अनादि विभाव दुखके आविया पावापुरी, जिनराज आगम हरख पाम्या भव्यकेकि हितधरी; धन्य पुहवि धन्य वनसो धन्य जनपदपुरसहि, श्रीवीरनायक चरण फरसक भइ पावन या महि ॥१॥ इंद्रादिक आगल चले भगते जयजय कहेतेजी,
छत्र सिंहासन चमर स्यं इंद्रवज लई वहतेजी ॥ त्रुटक॥
वहतिज आगले देवकोडी धर्मचक्रदेखावती, नरतिरिपव्यंतर असुर किन्नर अपछरा गुन गावति; निन कार्य करणः अमणश्रमणी आत्मतत्त्व नीपावती, दुमणि उगी उगय पासे नाथपद शीर नामती ॥२॥ गगन पंखीगण उडता करता प्रदक्षिणा रंगेजी,
पूठि पवन अनुकूलता हरती ईति प्रसंगेजी; ॥ त्रुटक ॥
सहजे सुगंधित निर वरसे पुष्प वृष्टि चिहु दिशे, कंटक अधोमुख कहे जिनते भाव कंटक सविनसे; जयजय कहंति सुरि नचंति देव कुंदमि रणझणे, देवाधिदेवा करे सेवा तत्त्वरुचिजनने भणे ।। ३ ।। पावन करता भूतले मिथ्या तिमिर होताजी, विषयविषे मूरछीत भणी देशना अमृत झरताजी;
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